शहर के विख्यात संभागर पूजा सदन में आज लोकप्रिय पत्रिका ‘नियति’ के 25 वर्ष होने पर कार्यक्रम का आयोजन था | पत्रिका के सम्पादक श्री देवेंद्र पर एक व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लक्ष्य करके रघुनाथ द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘सुलभा’ का अंक भी आज ही इसी की साथ लोकार्पित होना था |
सभागार में काफी गहमा गहमी थी | मेरी बगल वाली सीट पर बैठे रवि जी ने प्रश्न किया, मित्रवर क्या बात है ? कुछ माह पहली सुलभा के संपादक रघुनाथ का व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित ‘नियति ‘ का अंक भी आया था |
हाँ भाईसाहब जमाना ही ऐसा आ गया है ,आप मुझी खुजाओ ,मै आपको खुजाता हूँ | मैंने कहा |
पर इस प्रकार के लेन-देन से साहित्य का कितना भला होगा | रवि जी ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा |
उनके मंतव्य को समझते हुए मैंने आँखों की आँखों में सहमति व्यक्त की |
थोड़ी देर बात रवि जी ने कहा
“सर वो जो आप एक संकलन निकाल रहे थे,मै अपनी रचनाएँ भेजना चाहता हूँ | ” और आपकी रचना मैंने अपनी पुस्तक से लेकर अखबार के अपने कॉलम में छपवा दी है |
रवि जी बोले जा रहे थे और मै उनकी बातों को ‘नियति’ और सुलभा के देवेंद्र और रघुनाथ से मिला रहा था |
- डॉ जयशंकर शुक्ल